भागिक पालन का सिद्धांत भारतीय संपत्ति अधिनियम, 1882 के तहत कार्य करता है। यह सिद्धांत तब लागू होता है जब कोई व्यक्ति संपत्ति के स्थानांतरण के लिए कार्य करता है, भले ही अनुबंध लिखित न हो, और उसे न्यायालय में मान्यता मिल सकती है।
परिचय
भागिक पालन का सिद्धांत (Doctrine of Part Performance) एक कानूनी सिद्धांत है जो भारतीय संपत्ति अधिनियम, 1882 के अंतर्गत आता है। यह सिद्धांत उन परिस्थितियों में लागू होता है जब कोई व्यक्ति किसी अनुबंध के तहत संपत्ति के स्थानांतरण के लिए कार्य करता है, लेकिन वह अनुबंध लिखित रूप में नहीं है या उसके कुछ कानूनी औपचारिकताएँ पूरी नहीं की गई हैं। जहां कि कोई व्यक्ति किसी स्थावर सम्पत्ति को प्रतिफलार्थ अन्तरित करने के लिए अपने द्वारा या अपनी ओर से हस्ताक्षरित लेखबद्ध ऐसी संविदा करता है, जिससे उस अन्तरण को गठित करने के लिए आवश्यक निबन्धन युक्तियुक्त निश्चय के साथ अभिनिश्चित किये जा सकते हैं[1]।
भागिक पालन के सिद्धांत का अर्थ
धारा 53-क प्रथम बार सम्पत्ति अन्तरण (संशोधन) अधिनियम, 1929 के माध्यम से अधिनियमित की गई जो भारत वर्ष में, भागिक पालन की साम्या (equity of part performance) जो इंग्लैण्ड में मैडिसन बनाम आलडरसन[2] नामक वाद में विकसित की गई, को संशोधित रूप में ले आयी (आयात किया)।
आंशिक प्रदर्शन का सिद्धांत एक न्यायसंगत सिद्धांत है जिसे किसी दस्तावेज़ के गैर-पंजीकरण के परिणामस्वरूप धोखाधड़ी और गैरकानूनी शोषण को रोकने के लिए डिज़ाइन किया गया है। यह सिद्धांत इस कहावत के तहत काम करता है कि न्यायसंगतता किसी कार्य को इस तरह से मानती है जैसे कि वह किया गया हो, जिसे किया जाना चाहिए था।
मूलतः, सिद्धांत में कहा गया है कि हस्तांतरक या उनके माध्यम से दावा करने वाले किसी भी पक्ष को, हस्तांतरी और उनके अधीन दावा करने वालों के विरुद्ध, उस संपत्ति के संबंध में कोई भी अधिकार लागू करने से रोक दिया जाता है, जिसे हस्तांतरी ने अपने कब्जे में ले लिया है या अपने कब्जे में रखना जारी रखा है, सिवाय उन अधिकारों के, जिनका स्पष्ट रूप से अनुबंध की शर्तों में प्रावधान किया गया है।
भागिक पालन के सिद्धांत का उद्देश्य
भागिक पालन के सिद्धांत (Doctrine of Part Performance) भारतीय संपत्ति अधिनियम के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत है। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति किसी अनुबंध के तहत संपत्ति के स्थानांतरण के लिए कार्य करता है, तो वह अनुबंध को मान्यता देने के लिए न्यायालय में अपील कर सकता है, भले ही वह अनुबंध लिखित रूप में न हो। भागिक पालन के सिद्धान्त के लागू होने का प्रश्न पुनः आरिफ बनाम यदुनाथ[3] के बाद में उठा।
भागिक पालन के सिद्धांत के मुख्य बिंदु
- अनुबंध का पालन: यदि कोई व्यक्ति किसी अनुबंध के तहत संपत्ति के स्थानांतरण के लिए कार्य करता है, जैसे कि संपत्ति का कब्जा लेना या उसमें सुधार करना, तो वह भागिक पालन के सिद्धांत के तहत अपने अधिकारों का दावा कर सकता है।
- संपत्ति का कब्जा: यदि कोई व्यक्ति संपत्ति का वास्तविक कब्जा रखता है और उस संपत्ति के संबंध में कोई अनुबंध है, तो वह उस अनुबंध के अनुसार अपने अधिकारों का दावा कर सकता है, भले ही अनुबंध लिखित न हो।
- न्यायालय की भूमिका: न्यायालय इस सिद्धांत के तहत यह देखता है कि क्या अनुबंध के अनुसार कार्य किया गया है और क्या उस कार्य के आधार पर किसी पक्ष को अनुबंध के लाभ का दावा करने का अधिकार है।
- सुरक्षा का तंत्र: यह सिद्धांत उन व्यक्तियों के लिए सुरक्षा का तंत्र प्रदान करता है जो किसी अनुबंध के तहत संपत्ति के संबंध में कार्य कर रहे हैं, ताकि उन्हें अनुबंध के उल्लंघन से बचाया जा सके।
भागिक पालन के सिद्धांत का विकास
क्या है भागिक पालन की साम्या जो इंग्लैण्ड में विकसित हुई? 1929 से पूर्व की स्थिति- 1929 में जब सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम में धारा 53-क जोड़ी गई उससे पूर्व भागिक पालन के सिद्धान्त का चलन भारतवर्ष में था पर इसे लेकर बहुत अनिश्चितता थी। इस अनिश्चितता में हम प्रीवी कौंसिल के निर्णयों के माध्यम से देख सकते हैं। इस मामले में अग्रनिर्णय (leading case) मोहम्मद मूसा बनाम अधोर कुमार गांगुली[4]' का है।जहां एक संविदा स्टैटयूट ऑफ फ्राइस के अन्तर्गत प्रवर्तनीय नहीं थी इसलिए कि वह लिखित नहीं थी और पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित नहीं थी, लेकिन जिसका भागिक पालन किया गया था और भागिक पालन का कार्य ऐसा था जिससे असंदिग्ध रूप से यह अनुमान लगाया जा सकता था कि संविदा जैसा कि अभिकथित की जा रही है अवश्य रही होगी, वहां साम्या न्यायालयों ने यह अभिनिर्धारित किया कि स्टैटयूट ऑफ फ्राड के होते हुए भी साम्या न्यायालयों को यह अधिकार है कि वे मौखिक साक्ष्य के माध्यम से संविदा के वास्तविक निबन्धनों (terms) का पता लगाये और तद्नुसार पक्षकारों को अनुतोष प्रदान करे। संक्षेप में यहीं इंग्लैण्ड का भागिक पालन का साम्यिक सिद्धान्त (equitable doctrine of part performance) है।
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने मोहम्मद मूसा के बाद के निर्णय के अनुसार भागिक पालन के सिद्धान्त को लागू किया और वादी के बाद को खारिज कर दिया। कलकत्ता उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरुद्ध प्रीवी कौंसिल में अपील हुई और प्रीवी कौंसिल ने निर्णय को पलट दिया। प्रीवी कौंसिल ने कहा कि यहां न तो वाल्स बनाम लैंसडैल[5] का सिद्धान्त और न ही भागिक पालन का सिद्धान्त लागू होगा जिससे एक सम्व्यवहार को एक संविधि की क्रिया (operation) से छुटकारा प्राप्त हो सके।
अधिनियम के अंर्तगत भागिक पालन का सिद्धान्त
धारा 53-क के बारे में प्रीवी कौंसिल और उच्चतम न्यायालय दोनों ने कहा कि इसके अन्तर्गत आंग्ल विधि के भागिक पालन के साम्यिक सिद्धान्त का आंशिक रूप से आयात (importation) हुआ है। अतः केवल उन्हीं मामलों में भागिक पालन के सिद्धान्त का प्रयोग हो सकता है या इसे लागू किया जा सकता है जहां धारा 53-क के जुड़ने के बाद धारा की आवश्यक शर्तें पूरी हों[6]। धारा 53-क में भागिक पालन के जिस सिद्धान्त का प्रावधान है यह संविधि (कानून) की उपज है न कि साम्यां की। अर्थात् धारा 53-क में दिया गया अधिकार संविधिक (कानूनी) है न कि साम्यिक। इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय ने स्टेट ऑफ यू० पी० बनाम डिस्ट्रिक्ट जज[7] में यह अभिनिर्धारित किया कि क्रेता धारा 53-क के अन्तर्गत कब्जे के संरक्षण के अधिकार को केवल प्रस्तावित विक्रेता के विरुद्ध प्रयोग कर सकता है न कि किसी तीसरे पक्षकार के जैसे राज्य जो प्रस्तावित विक्रेता (भूधृति धारक काश्तकार) के विरुद्ध जोत हदबन्दी (Ceiling of land Holdings) सम्बन्धित विधि को प्रवर्तित करना चाहता है।
धारा की आवश्यक शर्तें (Essentials of the Section)
धारा 53-क के लागू होने के लिए निम्नलिखित आवश्यक शर्तों का पूरा होना आवश्यक है:
- कोई व्यक्ति किसी स्थावर सम्पत्ति को प्रतिफलार्थ अन्तरित करने की संविदा करता है
- ऐसी संविदा लिखित हो और अब रजिस्ट्रीकृत हो तथा अन्तरक के द्वारा या उसकी ओर से हस्ताक्षरित हो
- ऐसी संविदा को गठित करने के लिए संविदा के निबन्धन युक्तियुक्त निश्चितता के साथ अभिनिश्चित किये जा सकते हैं
- अन्तरिती ने भागिक पालन में सम्पत्ति का कब्जा ले लिया है? या यदि सम्पत्ति पर पहले से ही काबिज है तो कब्जा चालू रखता है
- अन्तरिती संविदा को अग्रसर रखने के लिए कुछ कार्य कर चुका है और
- अन्तरिती संविदा के अपने भाग का पालन कर चुका है या पालन करने के लिए रजामन्द (इच्छुक) है।
पश्चात्वर्ती अन्तरिती का अधिकार-परन्तुक (Right of subsequent transferee Proviso)
धारा 53-क के परन्तुक के अनुसार यह धारा ऐसे सप्रतिफल अन्तरिती के अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं डालती है जिसे पूर्विक संविदा या उसके भागिक पालन की सूचना न हो। दूसरे शब्दों में यह पश्चात्वर्ती अन्तरिती के अधिकारों की रक्षा करती है यदि-
- वह सप्रतिफल अन्तरिती है;
- जिसे पूर्विक विक्रय की संविदा या उसके भागिक पालन की सूचना नहीं है।
परन्तु पश्चात्वर्ती अन्तरिती का अधिकार विफल हो सकता है यदि वह आनुग्रहिक (बिना प्रतिफल) अन्तरिती है और उसे पूर्विक संविदा या उसके भागिक पालन की सूचना है। अतः एक स्थावर सम्पत्ति का अन्तरिती, जिसे पहले ही एक तीसरे पक्ष को अन्तरित करने की संविदा कर दी गई है और जिसे कब्जा भी दे दिया गया है, सम्पत्ति में अजेय (जो विफल नहीं हो सकता) स्वत्व प्राप्त करता है यदि उसने प्रतिफल का भुगतान किया है और उसे पूर्विक संविदा या उसके भागिक पालन की सूचना नहीं है।।
वह व्यक्ति जो भागिक पालन के लाभ का दावा करता है, सबूत का भार उसके ऊपर है जो यह साबित करे कि अन्तरिती को संविदा की या उसके भागिक पालन की सूचना थी।
दृष्टान्त
'क' अपनी एक स्थावर सम्पत्ति को सप्रतिफल बेचने की एक लिखित संविदा 'ख' से करता है और उसे सम्पत्ति का कब्जा भी प्रदान कर देता है। तत्पश्चात् 'क' उसी सम्पत्ति को सप्रतिफल 'ग' को बेच देता है जिसे 'क' और 'ख' के बीच की गई संविदा और उसके भागिक पालन की कोई सूचना नहीं है। यहां 'ख', 'ग' के अधिकार का प्रतिवाद नहीं कर सकता। 'ग' को अजेय स्वत्व प्राप्त होगा।
निष्कर्ष
इस धारा के अधीन किस प्रकार का अधिकार अन्तरिती को प्राप्त होता है या अन्तरिती के अधिकार की प्रकृति क्या है? इससे सम्बन्धित अग्रनिर्णय (leading case) प्रबोध कुमार दास बनाम दन्तमारा टी कम्पनी लि०[8] का है। अतः उसके तथ्यों और उसमें प्रतिपादित सिद्धान्त को जान लेना समीचीन होगा।
धारा में भागिक पालन के सिद्धान्त के लागू होने के लिए आवश्यक शर्तों की विवेचना के फलस्वरूप हम कह सकते हैं कि धारा 53-क अन्तरिती को उस सम्पत्ति के बारे में जिस पर उसने भागिक पालन में कब्जा प्राप्त कर लिया कोई स्वत्व या हित नहीं प्रदान करती। वह उसे केवल कब्जा जारी रखने या कब्जा बचाये रखने का अधिकार प्रदान करती है।
[1]. संपत्ति अंतरण अधिनियम (डॉक्टर टी पी त्रिपाठी) 2011 संस्करण.
[2]. (1883) 8 अपी0 केस 467.
[3]. ए० आई० आर० 1931 पी० सी० 79.
[4].(1914) 42 कल० 801.
[5].(1882) 31 लवलू ० आर० (इंग) 109 (110).
[6]. संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 (Last Updated on October 30, 2024).
[7]. ए० आई० आर० 1997 सु० को० 53.
[8]. ए० आई० आर० 1940 पी० सी० 1.