संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 41 प्रत्यक्ष हस्तांतरण को किस प्रकार प्रभावित करती है?

संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 41 प्रत्यक्ष स्वामी के सिद्धांत को स्थापित करती है। यह निर्दोष खरीदारों को सुरक्षा प्रदान करती है, बशर्ते उन्होंने उचित सावधानी बरती हो और हस्तांतरण सप्रतिफल हो। इससे संपत्ति लेन-देन में स्थिरता आती है।

 

परिचय

संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882, संपत्ति के हस्तांतरण को नियंत्रित करने वाले कानूनों की रूपरेखा तैयार करता है, जिसमें वास्तविक मालिकों, प्रत्यक्ष मालिकों और तीसरे पक्ष के अधिकारों पर जोर दिया जाता है। जबकि अधिनियम उपहार, उत्तराधिकार, विरासत या वसीयतनामा के माध्यम से हस्तांतरण को कवर नहीं करता है, इसका उद्देश्य जनता के लिए संपत्ति हस्तांतरण को सुव्यवस्थित करना है। अधिनियम की धारा 41 प्रत्यक्ष स्वामी द्वारा संपत्ति के हस्तांतरण के सिद्धांत को स्थापित करती है, जिसे तीसरे पक्ष के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रवधान किया गया है[1]।

दृश्यमान स्वामी की परिभाषा (Ostensible Owner)

दृश्यमान स्वामी वह है जिसमें स्वामित्व के लक्षण हैं परन्तु वास्तविक स्वामी नहीं है। दूसरे शब्दों में दृश्यमान स्वामी वह है जिसमें स्वामी के सभी लक्षण हैं परन्तु वह वास्तविक स्वामी नहीं है।

  • जैसे किसी में स्वत्व हो, जिसके पास कब्जा हो, जिसका नाम राजस्व अभिलेख में दर्ज हो वह दृश्यमान स्वामी है। यह सब स्वामित्व के लक्षण हैं। यह सब होते हुए भी वह वास्तविक स्वामी नहीं है। यहां 'दृश्यमान स्वामी' का प्रयोग 'वास्तविक स्वामी' के विरोध में किया गया है।
  • जहां एक पिता ने अपने अवयस्क पुत्रों के नाम में सम्पत्ति खरीदा वहां कलकत्ता उच्च न्यायालय ने गिरीन्द्र नाथ मुखर्जी बनाम सुमेन मुखर्जी[2] नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि पुत्र दृश्यमान स्वामी थे क्योंकि उनके पास सम्पत्ति खरीदने का कोई साधन महीं था और न तो पिता ने इस बात की अपेक्षा की थी कि वे सम्पत्ति के वास्तविक स्वामी होंगे।
  • उच्चतम न्यायालय ने जय दयाल पोद्दार बनाम बीबी हाजरा[3]' नामक वाद में यह कहा कि इस प्रश्न के निर्धारण के लिये कोई दृश्यमान स्वामी है या नहीं, निम्न बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए :

(i) क्रय धन का स्त्रोत;

(ii) क्रय के पश्चात् कब्जे का स्वभाव;

(iii) सम्व्यवहार को बेनामी बनाने के लिये हेतु (motive);

(iv) पक्षकारों के सम्बन्ध;

(v) स्वत्व विलेख की अभिरक्षा और

(vi) विक्रय के पश्चात् सम्पत्ति के साथ व्यवहार करने में पक्षकारों का आचरण है। 

संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 41

संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 41 में किसी प्रत्यक्ष स्वामी को संपत्ति के हस्तांतरण के बारे में बताया गया है। इसमें कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट अचल संपत्ति के वास्तविक स्वामी की स्पष्ट या निहित सहमति से कार्य करता है, तो उस व्यक्ति को संपत्ति का 'प्रत्यक्ष स्वामी' माना जाता है[4]।

संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 41 द्वारा शासित यह अवधारणा, इच्छुक पक्षों की सहमति से ऐसे प्रत्यक्ष स्वामियों द्वारा किए गए हस्तांतरण को मान्यता देती है। हस्तांतरण को प्रतिफल के लिए वैध माना जाता है, और प्रत्यक्ष स्वामी द्वारा प्राधिकरण की कमी के आधार पर इसे रद्द नहीं किया जा सकता है। धारा 41 में प्रीवी कौंसिल द्वारा रामकुमार बनाम मैक्वीन' नामक[5] वाद में प्रतिपादित विधि के सिद्धान्तों को विधायी रूप दिया गया है या विधायी मान्यता दी गई है। 

'निमो डाट क्वॉड नॉन हैबेट' नियम का एक अपवाद

धारा 41 'नेमो दात क्वॉड नॉन हैबेट' के सामान्य सिद्धांत के लिए एक अपवाद प्रस्तुत करती है, जिसका अर्थ है कि कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति से बेहतर शीर्षक हस्तांतरित नहीं कर सकता है। धारा 41 इस सिद्धांत के लिए एक व्यापक रूप से स्वीकृत अपवाद है।

  • उदाहरण के लिए, यदि वास्तविक स्वामी किसी विशिष्ट व्यक्ति को उचित तरीके से संपत्ति के स्वामित्व संबंधी दस्तावेज सौंपता है और उस व्यक्ति को दिखावटी स्वामी बनाता है, तो कोई तीसरा पक्ष जो दिखावटी स्वामी के साथ सद्भावनापूर्वक व्यवहार करता है और उचित जांच करने के बाद, वास्तविक स्वामी के विरुद्ध भी संपत्ति का वैध स्वामित्व प्राप्त कर सकता है।

प्रत्यक्ष स्वामी द्वारा वैध हस्तांतरण के लिए शर्तें

सम्पत्ति के अन्तरण से सम्बन्धित एक सामान्य सिद्धान्त, जो निम्न सूत्र में अभिव्यक्त है, यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने से ज्यादा अधिकार या स्वत्व दूसरे को प्रदान नहीं कर सकता। (Nemo plus juris alium transfere potest quam ipse habet-no man can transfer to another a right or title greater than what he himself possesses) या दूसरे को अपने से अच्छा स्वत्व नहीं प्रदान कर सकता। इसी से मिलता जुलता दूसरा सूत्र है जो कहता है- वह देता नहीं जो रखता नहीं (non dat quinon habet-he gives not who hath not), सम्पत्ति के अन्तरण से सम्बन्धित यह जो सामान्य सिद्धान्त है उसके कई अपवाद हैं। धारा 41 के प्रावधान उन्हीं अपवादों में से एक है।

धारा की आवश्यकतायें (शर्तें) (Requirements of the Section)- धारा के प्रावधानों के लागू होने के लिए निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक है':

  • अन्तरक अन्तरित सम्पत्ति का दृश्यमान स्वामी है;
  • वह दृश्यमान स्वामी, वास्तविक स्वामी की अभिव्यक्त या विवक्षित सम्पत्ति से है;
  • अन्तरण सप्रतिफल है;
  • अन्तरिती ने यह पता लगाने में सम्यक् (युक्तियुक्त) सावधानी बरती है कि अन्तरक को सम्पत्ति के अन्तरण की शक्ति प्राप्त है और ऐसा करने के पश्चात् उसने सद्भावनापूर्वक कार्य किया है।
  • हस्तान्तरणकर्ता को संपत्ति का वास्तविक स्वामी होना चाहिए तथा उसे वास्तविक स्वामी की सहमति से संपत्ति पर स्वामित्व रखना चाहिए।
  • हस्तांतरण प्रतिफल के लिए होना चाहिए, तथा हस्तांतरिती को सद्भावनापूर्वक कार्य करते हुए, हस्तांतरणकर्ता के प्राधिकार का पता लगाने के लिए उचित सावधानियां बरतनी चाहिए।
  • प्रत्यक्ष स्वामित्व के लिए वास्तविक स्वामी की स्पष्ट या निहित सहमति आवश्यक है।
  • हस्तांतरण कुछ बदले में (प्रतिफल) पाने के लिए किया जाना चाहिए।
  • हस्तांतरिती को उचित सावधानी बरतनी चाहिए तथा सद्भावनापूर्ण इरादे से कार्य करना चाहिए।
  • हस्तांतरिती द्वारा उचित देखभाल का अभाव धारा 41 के अनुप्रयोग को प्रभावित करता है।
  • हस्तांतरिती को मानक शीर्षक जांच का प्रदर्शन करना होगा, और यदि शीर्षक स्पष्ट है, तो कोई जांच आवश्यक नहीं है।
  • सद्भावना एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है, जो यह सुनिश्चित करती है कि हस्तांतरिती ईमानदारी से कार्य करे तथा हस्तान्तरणकर्ता के अधिकार और शीर्षक के बारे में उचित जांच-पड़ताल करे।

बेनामी लेनदेन और संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 41

बेनामी सम्व्यवहार (प्रतिषेध) अधिनियम, 1988 के लागू हो जाने के पश्चात् यदि कोई सम्पत्ति बेनामी खरीदी जाती है, तो वह व्यक्ति जिसके नाम में सम्पत्ति धारित की जाती है वह सम्पत्ति का वास्तविकस्वामी (दृश्यमान नहीं) होगा सिवाय वहां के जहां वह अविभाजित हिन्दू परिवार का एक सह अंशधारी है और सम्पत्ति परिवार के सह अंशधारियों के लाभ के लिए धारित करता है या एक न्यासी है और सम्पत्ति को ऐसे व्यक्ति के लिए धारित करता है जिसके लिए वह न्यासी है या एक वैश्वासिक हैसियत वाला व्यक्ति है उसके सम्पत्ति उसके लिए धारित करता है जिसके लिए वह वैश्वासिक हैसियत में है।

  • बेनामी लेनदेन (निषेध) अधिनियम, 1988 के अनुसार, जब कोई संपत्ति बेनामी (किसी अन्य के नाम पर) हस्तांतरित की जाती है, तो संपत्ति का धारक वास्तविक मालिक बन जाता है, तथा बेनामीदार ट्रस्टी के रूप में कार्य करता है।
  • असली मालिक केवल सहमति की कमी और खरीदार की जानकारी के अभाव को साबित करके ही इस तरह के अलगाव को चुनौती दे सकता है। अधिनियम उस व्यक्ति के खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई या दावों पर रोक लगाता है जिसके नाम पर संपत्ति है या वास्तविक स्वामित्व का दावा करने वाले किसी अन्य दावेदार के खिलाफ़।
  • बेनामी लेनदेन (निषेध) संशोधन अधिनियम, 2016 जैसे कानूनी प्रावधानों के कारण वास्तविक स्वामी के स्वामित्व अधिकारों को बेनामी स्वामी के विरुद्ध लागू नहीं किया जा सकता। यह अधिनियम विशिष्ट अपवादों के साथ, प्रकट स्वामी द्वारा किए गए हस्तांतरण को अवैध बनाता है।
  • ठाकुर कृष्ण बनाम कन्हैयालाल[6] मामले में न्यायालय ने फैसला सुनाया कि बेनामी मालिक के नाम पर रखी गई संपत्ति सरकार के सक्षम प्राधिकारी द्वारा बिना किसी मुआवजे के अधिग्रहण के अधीन है।
  • ईश्वर दास बनाम बीर सिंह और अन्य[7] के मामले में  न्यायालय के समक्ष वादी ने प्रोफार्मा प्रतिवादियों के साथ भूमि के एक टुकड़े पर सह-स्वामित्व का दावा किया। विवाद भूमि में वादी के हिस्से की सीमा के इर्द-गिर्द घूमता था। वादी ने 1/3 हिस्सा मांगा, जबकि प्रतिवादी ने 1/6 हिस्सा मांगा।
  • मोहम्मद शफीकुल्लाह खान बनाम मोहम्मद समीउल्लाह खान[8] इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि यह धारा 41 की आवश्यकता को पूरा नहीं करता है, क्योंकि स्वामित्व वैध मालिक की स्पष्ट या निहित सहमति से प्राप्त नहीं किया गया था, इस प्रकार नाजायज बेटों को स्पष्ट स्वामित्व का दर्जा देने से इनकार कर दिया गया।
  • जहां वादी भूमि के लेन-देन का व्यापार करता था और प्रतिवादी धन उधार देने (money lending) का, वादी का कहना था कि वह प्रतिवादी के नाम में भूमि खरीदता था, जिसका प्रतिफल प्रतिवादी देता था, दोनों में यह सहमति थी कि प्रतिवादी का पैसा भुगतान कर दिये जाने पर वह सम्पत्ति को वादी के पक्ष में पुनः हस्तान्तरित कर देता, वहां गुजरात उच्च न्यायालय ने हेयर्स ऑफ ब्रज लाल जे० गनात्रा बनाम हेयर्स ऑफ परसोत्तम एस० साह०[9] में अभिनिर्धारित किया कि तथ्यों के आधार पर यह बेनामी सम्व्यवहार नहीं है।

निष्कर्ष

संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 41, किसी दिखावटी मालिक से संपत्ति खरीदने वाले निर्दोष तीसरे पक्ष के खरीदारों को सुरक्षा प्रदान करती है। यह एस्टोपल के सिद्धांत को स्थापित करता है, जहां वास्तविक मालिक को हस्तांतरण को चुनौती देने से रोक दिया जाता है, अगर हस्तांतरित व्यक्ति ने सद्भावना से काम किया हो और हस्तांतरणकर्ता के अधिकार को सत्यापित करने के लिए उचित सावधानी बरती हो। 

एक प्रत्यक्ष मालिक के रूप में अपनी स्थिति स्थापित करने के लिए सबूत का भार हस्तांतरिती पर होता है। इस प्रावधान का उद्देश्य वास्तविक खरीदारों के हितों की रक्षा करना और संपत्ति के लेन-देन में स्थिरता सुनिश्चित करना है। यह वास्तविक मालिक के दावों के खिलाफ सुरक्षा के रूप में कार्य करता है और संपत्ति के अधिकारों में निश्चितता को बढ़ावा देता है।


[1]संपत्ति अंतरण अधिनियम (डॉक्टर टी पी त्रिपाठी) 2011 संस्करण.

[2]. ए० आई० आर० 1988 कल० 375.

[3].ए० आई० आर० 1974 सु० को० 171.

[4]. संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 (Last Updated on October 30, 2024).  

[5]. (1872) 11 बंगा० लॉ रिपो० 52.

[6].ए० आई० आर० 1961 इलाहाबाद 206.

[7]. आर एस ए 439, हिमाचल प्रदेश, 2002.

[8].ए० आई० आर० 1929 इलाहाबाद 943.

[9].ए० आई० आर० 1996 गुज० 147.

Harish Khan
How does the Court of Justice of the European Union shape Legal Integration and EU Law?
The Court of Justice of the European Union ensures uniform application of EU law across Member States through direct proceedings and preliminary rulings. Its role in legal integration, judicial supremacy, and shaping key legal principles is pivotal for the EU.
Anish Sinha
How can Decrees Be Executed Effectively?
The execution of decrees under Order XXI CPC ensures judicial decisions are enforced effectively. Modes include delivery of property, attachment, arrest, receivership, partition, and monetary payments, upholding the rule of law and ensuring substantive justice.
Anish Sinha
How do the Doctrines of Arrest and Attachment before Judgment operate in Civil Procedure?
The doctrines of arrest and attachment before judgment, codified under Order XXXVIII of the CPC, are safeguards to secure justice by preventing evasion or dissipation of assets. Courts apply these extraordinary measures with caution, balancing fairness and procedural integrity.
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